Ajay Amitabh Suman
2 min readSep 14, 2020

रे मेरे अनुरागी चित्तमन

ये कविता आत्मा और मन से बीच संवाद पर आधारित है। इस कविता में आत्मा मन को मन के स्वरुप से अवगत कराते हुए मन के पार जाने का मार्ग सुझाती है ।

रे मेरे अनुरागी चित्त मन,

सुन तो ले ठहरो तो ईक क्षण।

क्या है तेरी काम पिपासा,

थोड़ा सा कर ले तू मंथन।

कर मंथन चंचल हर क्षण में,

अहम भाव क्यों है कण कण में,

क्यों पीड़ा मन निज चित वन में,

तुष्ट नहीं फिर भी जीवन में।

सुन पीड़ा का कारण है भय,

इसीलिए करते नित संचय ,

निज पूजन परपीड़न अतिशय,

फिर भी क्या होते निःसंशय?

तो फिर मन तू स्वप्न सजा के,

भांति भांति के कर्म रचा के।

नाम प्राप्त हेतु करते जो,

निज बंधन वर निज छलते हो।

ये जो कति पय बनते बंधन ,

निज बंधन बंध करते क्रंदन।

अहम भाव आज्ञान है मानो,

बंधन का परिणाम है जानो।

मृग तृष्णा सी नाम पिपासा,

वृथा प्यास की रखते आशा।

जग से ना अनुराग रचाओ ,

अहम त्यज्य वैराग सजाओ।

अभिमान जगे ना मंडित करना,

अज्ञान फले तो दंडित करना।

मृग तृष्णा की मात्र दवा है,

मन से मन को खंडित करना।

जो गुजर गया सो गुजर गया,

ना आने वाले कल का चिंतन।

रे मेरे अनुरागी चित्त मन,

सुन तो ले ठहरो तो ईक क्षण।

Ajay Amitabh Suman
Ajay Amitabh Suman

Written by Ajay Amitabh Suman

[IPR Lawyer & Poet] Delhi High Court, India Mobile:9990389539

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