राख़

Ajay Amitabh Suman
1 min readJun 24, 2019

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​जाके कोई क्या पुछे भी,

आदमियत के रास्ते।

क्या पता किन किन हालातों,

से गुजरता आदमी।

चुने किसको हसरतों ,

जरूरतों के दरमियाँ।

एक को कसता है तो,

दुजे से पिसता आदमी।

जोर नहीं चल रहा है,

आदतों पे आदमी का।

बाँधने की घोर कोशिश

और उलझता आदमी।

गलतियाँ करना है फितरत,

कर रहा है आदतन ।

और सबक ये सीखना कि,

दुहराता है आदमी।

वक्त को मुठ्ठी में कसकर,

चल रहा था वो यकीनन,

पर न जाने रेत थी वो,

और फिसलता आदमी।

मानता है ख्वाब दुनिया,

जानता है ख्वाब दुनिया।

और अधूरी ख्वाहिशों का,

ख्वाब रखता आदमी।

आया हीं क्यों जहान में,

इस बात की खबर नहीं,

इल्ज़ाम तो संगीन है,

और बिखरता आदमी।

“अमिताभ”इसकी हसरतों का,

क्या बताऊं दास्ताँ।

आग में जल खाक बनकर,

राख रखता आदमी।

अजय अमिताभ सुमन

सर्वाधिकार सुरक्षित

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Ajay Amitabh Suman
Ajay Amitabh Suman

Written by Ajay Amitabh Suman

[IPR Lawyer & Poet] Delhi High Court, India Mobile:9990389539

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