सृष्टि की अभिदृष्टि कैसी?

मैं तो भव में पड़ा हुआ ,

भव सागर वन में जलता हूँ,
ये बिना आमंत्रण स्वर कैसा ,

अंतर में सुनता रहता हूँ?

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जग हीं शेष है बचा हुआ.

चित्त के अंदर बाहर भी,
ना कोई है सत्य प्रकाशन ,

कोई तथ्य उजागर भी।

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मेरे जीवन में जो कुछ भी,

अबतक देखा करता था,
अनुभव वो हीं चले निरंतर,

जो सीखा जग कहता था।

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बात हुई कुछ नई नई पर ,

ये क्या किसने है बोला ?
अदृष्टित दृष्टि में कोई ,

प्रश्न वोही किसने खोला?

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मेरे हीं मन की है सारी,

बाते कैसे जान रहा?
ढूंढ ढूंढ के प्रश्न निरंतर,

लाता जो अनजान रहा?

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सृष्टि की अभिदृष्टि कैसी,

सृष्टि का अवसारण कैसा?
ये प्रश्न रहा क्यों है ऐसा,

अदृष्टित का सांसरण कैसा?

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अजय अमिताभ सुमन

Ajay Amitabh Suman

[IPR Lawyer & Poet] Delhi High Court, India Mobile:9990389539