रावण का श्राप

Ajay Amitabh Suman
6 min readJun 28, 2019

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आज वाल्मीकि का मन घ्यान की गहराइयों में गोते नहीं लगा पा रहा था। उनके अनगिनत प्रयास असफल हो चुके थे। ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करने के बाद अभी अभी उस जगह से लौट के आये हैं, जहाँ पे सीता धरती में समा गयी थी। उस जगह पे विशाल गढ़ा अवशेष मात्र बच गया था। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम अपने दो पुत्रों लव और कुश को साथ लेकर अयोध्या लौट चुके थे। और साथ मे लेकर लौटे थे पत्नी का विछोह और विषाद भी। सारी कुटिया मे सन्नाटा का माहौल था । अभी कुछ दिनों पहले की बात है, सारा वातावरण लव और कुश की खिलखिलाहट से गुंजायमान रहता था। अब दिल को दहलाने वाली शांति थी।

वाल्मीकि का मन वैसे हीं खिन्न था। उनकी खिन्नता को उनके शिष्य के एक प्रश्न ने और बढ़ा दिया था।

गुरुदेव, क्या सीता जितना असीम प्रेम कोई स्त्री अपने पति से कर सकती है क्या, जितना उसने श्रीराम को किया? रावण के पास रहने के बाद भी वो हमेशा अपनी पति की यादों में खोई रहती। फिर भी राम ने उसकी अग्नि परिक्षा ली। और तो और, अग्नि परीक्षा में खड़ा उतरना भी काफी नहीं पड़ा। मात्र एक धोबी के आक्षेप पे गर्भावस्था में हीं श्रीराम ने उसका त्याग कर दिया। वो भी इन घने जंगलों में छोड़ दिया, किसी जंगली पशु का शिकार बनने के लिए। और अंत में धरती में समा गई। इस असीम प्रेम की ऐसी परिणीति क्यों? सीता की ऐसी दुर्गति क्यों?

इस प्रश्न ने उनके अंतरात्मा को हिला कर रख दिया। इसका उत्तर वो जान तो रहे थे, पर वाल्मीकि रामायण में इस बात का जिक्र करें या ना करें, इसी उधेड़ बुन में पड़े हुए थे। धीरे धीरे उनके मानस पटल पे सारी घटनाये एक एक कर उतरने लगी।

अयोध्या में सीता का स्वयंबर रचा गया था। सीता की सुंदरता चहुँ दिशा में फैली हुई थी। रावण पूरे आत्म विश्वास के साथ स्वयंबर में पहुंचा था। सीता को देखते हीं रावण उसकी सुंदरता की तरफ खींचता चला गया। कहाँ वो काला पुरुष, कहाँ दुग्ध रंग की सीता। रावण सोच रहा था: भला सीता के लिए उससे बेहतर वर इस धरा पे कोई और हो सकता है क्या? तिस पर से उसके आराध्य देव शिव के धनुष पे प्रत्यंचा चढ़ानी हीं स्वयंबर की शर्त थी। उसके आराध्य देव शिव का धनुष उसकी राह में बाधा कैसे आता? रावण अपनी जीत के प्रति आश्वस्त सीता के सपनों में खोया हुआ बैठा हुआ था।

अचानक राम और लक्ष्मण के साथ विश्वामित्र जनक पूरी में स्वयंबर गृह में प्रवेश करते हैं। वाल्मीकि ने रावण के मन मे उठते हुए आशंका के बादल को देखा। और फिर देखा कि कैसे सीता देखते हीं देखते राम की हो गई।

रावण हताश और निराश लंका लौट गया। पर सीता को खोने का मलाल उसके मन मष्तिष्क पे छाया हुआ था।दिन रात उसकी यादों में हीं खोया रहता। उसकी माता कैकसी को अपने पुत्र रावण का वियोग देखा न गया। उसकी शादी एक खुबसूरत कन्या मंदोदरी से करा दी जाती है। समय के साथ मेघनाद, अक्षय आदि पुत्रों का जन्म हुआ पर सीता की याद उसके मन से गई नहीं। प्रेम में हारा हुआ रावण क्रूर से क्रूरतम होता गया। सारी दुनिया को जीतकर वो स्वयंबर में मिली अपनी हार को मिटाना चाहता था, पर ऐसा हुआ नहीं।

वो जब भी अपनी आलिंगन में मंदोदरी को भरता, उसे सीता की याद आती। जब भी मंदोदरी का चुम्बन लेता, उसकी बंद आंखों के सामने सीता आ जाती। उसके दिल के खालीपन को पूरा विश्व भी नहीं भर पाया। पर नियति को कुछ और मंजूर था।

फिर उसको ये मौका मिलता है, अपनी बहन सूर्पनखा के नाक कटने पर। जब लक्ष्मण ने रावण की बहन मंदोदरी का नाक काट दिया और रोते हुए रावण के पास गई तो उसे अपनी बहन के प्रतिशोध लेने का बहाना मिल गया। उसके सीता के अपहरण करने का विरोध मंदोदरी भी नहीं कर पाई।

रावण जान रहा था कि राम बलशाली है। रावण ये भी जान रहा था कि सीता अपने पति के समर्पित है। इसीलिए धोखे से सीता का अपहरण कर लाता है। उसे अपने मामा मारीच के मरने से दुख कम, सीता के हासिल करने की खुशी ज्यादा थी।

रावण बार बार अशोक वाटिका में जाकर सीता के सामने अपने प्रेम को उजागर करता, पर उसे हमेशा मिली सीता की अपेक्षा, और सीता का मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम पर प्रेम और उनकी नीति परायणता पर अहंकार। सीता ने उसका लाख अपमान किया, लाख तिरस्कार किया,पर रावण ने कभी भी प्रेमी की मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया।हालाँकि अनेक मौको पर वो भी सीता को धमकाता, पर ये हारे हुए प्रेमी की हताशा हीं थी, कुछ और नहीं।

वाल्मीकि बार बार रावण के मन में उठी उस असुरक्षा की भावना को देख रहे थे, जो श्रीराम के स्वयंबर में आने से उठी थी। वो तो सीता का तन और मन दोनों चाहता था। वो सीता को बताना चाहता था कि श्रीराम से बेहतर है, हर मामले में, शस्त्र में भी और शास्त्र में भी।

वाल्मीकि को रावण का दरबार याद आ रहा था, जब हनुमान उसके पुत्र अक्षय कुमार का वध करने के बाद, मेघनाद द्वारा बंदी बनाकर लाया जाता है। अपने पुत्र अक्षय कुमार के वध पश्चात अत्यंत रोष में होने के बावजूद, रावण अपने मंत्रियों से हनुमान की सजा निश्चित करने के लिए परामर्श लेता है। क्या जरूरत थी रावण को परामर्श लेने की?वो रावण जो किसी के स्त्री के अपहरण करने से पूर्व किसी की सलाह नहीं लेता। वो रावण जो किसी को लूटने से पूर्व किसी की इजाजत नहीं लेता था। वो रावण, आज अपने पुत्र के वध होने के बाद भी, उसके हत्यारे को दंडित करने हेतु अपने मंत्रियों की सलाह मांग रहा था।

क्यों, क्योंकि पहले सीता नहीं थी, आज सीता है उसके पास। पहले कोई नहीं था उसे मर्यादा में बाँधने वाला। अब उसका मुकाबला मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम से था। सीता का दिल जीतने के लिए उसे मर्यादा का, नीति का पालन करना जरूरी था।

और वो अनुज विभीषण, जिसको वो पसंद नहीं करता था, उसी की बात मानकर हनुमान की पूँछ में आग लगा देता है। फिर उसी आग से हनुमान पूरी लंका को जला देते हैं। पूरी लंका धूं धूं कर जल उठती है।

वाल्मीकि को वो दृश्य भी नजर आ रहा था, जब उसके नाना आकर बताते हैं कि हनुमान ने पूरी लंका तो जला दी, विभीषण की कुटिया अभी भी बची हुई थी। ये समाचार सुनकर रावण आग बबूला हो गया था। तो दूसरे हीं क्षण उसके होठों पे मुस्कान फैल गई जब उसने जाना कि अशोक वाटिका में सीता सुरक्षित है। उसकी सीता सुरक्षित है।

एक एक करके श्रीराम के साथ युद्ध करते हुए उसके अनुज कुम्भकरण, पुत्र मेघनाद को खो दिया। पर उसने सीता की हत्या नहीं की। उसके हृदय में छिपा हुआ सीता का प्रेमी एक पिता और भाई पर भारी पड़ा।

वाल्मीकि को वो लम्हें भी याद आने लगे जब श्रीराम के अमोघ वाण ने उसके ममर्मस्थल को भेद दिया और वो जमीन पर धराशायी हो गया था। जब उसके शत्रु लक्ष्मण, श्रीराम ने उससे ज्ञान की याचना चाही तो रावण ने ज्ञान भी प्रदान किया, पर प्रेमी नहीं मरा।

वाल्मीकि को साफ दिखाई पर रहा था रावण के दिल से निकलती हुई वो आह जो उसकी मृत्यु से पहले निकली थी,

“सीता तू मेरी न हो सकी, तो तू राम की भी नहीं हो पायेगी।”

अब रावण का श्राप फलीभूत हो गया था।सीता जमीन में समा चुकी थी। प्रभु श्रीराम की होके भी श्रीराम को न पा सकी।

वाल्मीकि विचलित अवस्था में पड़े हुए थे। रावण का श्राप प्रतिफलित हुआ है, इस बात की वाल्मीकि रामायण में लिखूं या ना लिखूं।

एक तरफ श्रीराम थे, मर्यादा के प्रतीक, दूसरी तरफ रावण, एक प्रेमी, हमेशा से तिस्कृत। प्रेम तो था रावण का भी था ,पर ये वो प्रेम था जो हर चीज पाना चाहता था। तो दूसरी तरफ राम थे, जो सीता को खोने के लिए तैयार थे। किसको प्रश्रय दें, स्वार्थ को या परमार्थ को।

धीरे धीरे ध्यान की गहराइयों में डूब गए। समाधि खुली तो सारा संशय मिट चुका था। रावण का श्राप इतिहास के पन्नों से लुप्त हो चुका था।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित

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Ajay Amitabh Suman
Ajay Amitabh Suman

Written by Ajay Amitabh Suman

[IPR Lawyer & Poet] Delhi High Court, India Mobile:9990389539

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