दुर्योधन कब मिट पाया : भाग -9

Ajay Amitabh Suman
6 min readJun 19, 2021
दुर्योधन भले हीं खलनायक था ,पर कमजोर नहीं । श्रीकृष्ण का रौद्र रूप देखने के बाद भी उनसे भिड़ने से नहीं कतराता । तो जरूरत पड़ने पर कृष्ण से सहायता मांगने भी पहुँच जाता है , हालाँकि कृष्ण द्वारा छला गया , ये और बात है । उसकी कुटनीतिक समझ पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगा सकता । युद्ध के अंत में जब अश्वत्थामा उसको पांडव पुत्रों के कटे हुए सर लाता है तो दुर्योधन पछताता है ,परन्तु अश्वत्थामा खुश हीं होता है ।अश्वत्थामा इस बात से खुश होता है कि अच्छा हीं हुआ कि उसका बदला पूर्ण हुआ । जैसे वो अपने पिता के हत्या का बोझ सिर पे लिए जीता है , ठीक वैसे हीं पांडव भी जीते जी पुत्रों के वध की आग में जियेंगे । खुश दोनों हैं , पर दुर्योधन खुश होने के और महाभारत युद्ध लड़ने के अपने कारण बताता है । प्रस्तुत है दीर्घ कविता दुर्योधन कब मिट पाया , दीर्घ कविता का नौवां भाग ।

रिपु भंजक की उष्ण नासिका से उद्भट सी श्वांस चले,

अति कुपित हो अति वेग से माधव मुख अट्टहास फले।

उनमें स्थित थे महादेव ब्रह्मा विष्णु क्षीर सागर भी ,

क्या सलिला क्या जलधि जलधर चंद्रदेव दिवाकर भी।

देदीप्यमान उन हाथों में शारंग शरासन, गदा , शंख ,

चक्र खडग नंदक चमके जैसे विषधर का तीक्ष्ण डंक।

रुद्र प्रचंड थे केशव में, केशव में यक्ष वसु नाग पाल ,

आदित्य अश्विनी इन्द्रदेव और दृष्टित सारे लोकपाल।

एक भुजा में पार्थ उपस्थित दूजे में सुशोभित हलधर ,

भीम ,नकुल,सहदेव,युधिष्ठिर नानादि आयुध गदा धर।

रोम कूप से बिजली कड़के गर्जन करता विष भुजंग,

क्या दुर्योधन में शक्ति थी जो दे सकता हरि को दंड?

परिषद कम्पित थर्रथर्रथर्र नभतक जो कुछ दिखता था ,

अस्त्र वस्त्र या शाश्त्र शस्त्र हो ना केशव से छिपता था।

धूमकेतु भी ग्रह नक्षत्र भी सूरज तारे रचते थे,

जल थल सकल चपल अचल भी यदुनन्दन में बसते थे।

कभी ब्रज वल्लभ के हाथों से अभिनुतन सृष्टि रचती,

कभी प्रेम पुष्प की वर्षा होती बागों में कलियां खिलती।

कहीं आनन से अग्नि वर्षा फलित हो रहा था संहार,

कहीं हृदय से सृजन करते थे इस जग के पालन हार।

जब वक्र दॄष्टि कर देते थे संसार उधर जल पड़ता था,

वो अक्र वृष्टि कर देते थे संहार उधर फल पड़ता था।

स्वासों का आना जाना सब जीवन प्राणों का आधार,

सबमें व्याप्त दिखे केशव हरिकी हीं लीलामय संसार।

सृजन तांडव का नृत्य दृश्य माधव में हीं सबने देखा,

क्या सृष्टि का जन्म चक्र क्या मृत्यु का लेखा जोखा।

हरि में दृष्टित थी पृथा हरी हरि ने खुद में आकाश लिया,

जो दिखता था था स्वप्नवत पर सबने हीं विश्वास किया।

देख विश्वरूप श्री कृष्ण का किंचित क्षण को घबराए,

पर वो भी क्या दुर्योधन जो नीति धर्म युक्त हो पाए।

लौट चले फिर श्री कृष्ण करके दुर्योधन सावधान,

जो लिखा भाग्य में होने को ये युद्ध हरेगा महा प्राण।

दुर्योधन की मति मारी थी न इतना भी विश्वास किया,

वो हर लेगा गिरधारी को असफल किंतु प्रयास किया।

ये बात सत्य है श्रीकृष्ण को कोई हर सकता था क्या?

पर बात तथ्य है दु:साहस ये दुर्योधन कर सकता था।

बंदी करने को इक्छुक था हरि पर क्या निर्देश फले ?

जो दुनिया को रचते रहते उनपे क्या आदेश फले ?

ये बात सत्य है प्रभु कृष्ण दुर्योधन से छल करते थे,

षडयंत्र रचा करता आजीवन वैसा हीं फल रचते थे।

ऐसा कौन सा पापी था जिसको हरि ने था छला नहीं,

और कौन था पूण्य जीव जो श्री हरि से था फला नहीं।

शीश पास जब पार्थ पड़े था दुर्योधन नयनों के आगे ,

श्रीकृष्ण ने बदली करवट छल से पड़े पार्थ के आगे।

किसी मनुज में अकारण अभिमान यूँ हीं न जलता है ,

तुम जैसा वृक्ष लगाते हो वैसा हीं तो फल फलता है ।

कभी चमेली की कलियों पे मिर्ची ना तीखी आती है ,

सुगंध चमेली का गहना वो इसका हीं फल पाती है।

जो बाल्यकाल में भ्राता को विष देने का साहस करता,

कि लाक्षागृह में धर्म राज जल जाएं दु:साहस करता।

जो हास न समझ सके और परिहास का ज्ञान नहीं ,

भाभी के परिहासों से चोटिल होता अभिमान कहीं?

जो श्यामा के हंसने को समझा था अवसर अड़ने को ,

हँसना तो मात्र बहाना था वो था हीं तत्पर लड़ने को।

भरी सभा में कुलबधू का कर सकता जो वस्त्र हरण,

वो हीं तो ऐसा सोच सके कैसे हरि का हो तेज हरण।

आज वो ही दम्भी अभिमानी भू पे पड़ा हुआ था ऐसे,

धुल धूसरित हो जाती हो दूब धरा पर सड़ के जैसे।

अति भयावह दृश्य गजब था उस काले अंधियारे का,

ना कोई ज्योति गोचित ना परिचय था उजियारे का।

उल्लू सारे थे छिपे हुए से आस लगाए थे भक्षण को,

कि छुप छुप के घात लगाते ना कोई आता रक्षण को।

निशा अंधेरी तिमिर गहन और कुत्ते घात लगाते थे,

गिद्ध शृगाल थे प्रतिद्वंदी सब लड़ते थे खिसियाते थे।

आखिर भूख की देवी कब खुद की पहचान कराएगी?

नर के मांसल भोजन का कबतक रसपान कराएगी?

कब तक कैसे इस नर का हम सब भक्षण कर पाएंगे?

कबतक चोटिल घायल बाहु नर का रक्षण कर पाएंगे?

जो जंगल के हिंसक पशुओं के जैसा करता व्यवहार,

घात लगा कर उचित वक्त पे धरता शत्रु पे तलवार।

लोमड़ जैसी आंखे थी और गिद्धों जैसे थे आचार,

वो दुर्योधन पड़ा हुआ था गिद्धों के सम हो लाचार।

पर दुर्योधन के जीवन में कुछ पल अभी बचे होंगे ,

या श्वान, गिद्ध, शृगालों के दुर्भाग्य कर्म रहे होंगे ।

गिद्ध,श्वान की ना होनी थी विचलित रह गया व्याधा,

चाहत वो अपूर्ण रह गयी बाकी रहा इरादा।

उल्लू के सम कृत रचा कर महादेव की कृपा पाकर,

कौन आ रहा सन्मुख मेरे सोचा दुर्योधन घबड़ाकर?

धर्म पुण्य का संहारक अधर्म अतुलित अगाधा ,

था दक्षिण से अवतरित हो रहा अश्वत्थामा विराधा।

एक हाथ में शस्त्र सजा के दूजे कर नर मुंड लिए,

दिख रहा था अश्वत्थामा जैसे नर्तक तुण्ड जिए।

बोला मित्र दुर्योधन देखो कैसे मैं गर्वित करता हूँ,

पांच मुंड ये पांडव के है मैं तुमको अर्पित करता हूँ।

सुन अश्वत्थामा की बातें अधरों में मुस्कान फली,

शायद इसी दृश्य के हेतु दुर्योधन में जान बची।

फिर उसने जैसे तैसे करके निज हाथ बढ़ाया,

पाँच कटे हुए नर सर थे उनको हाथ दबाया।

कि पीपल के पत्तों जैसे ऐसे फुट पड़े थे वो,

पांडव के सर ना है ऐसे कैसे टूट पड़े थे जो ।

दीर्घ स्वांस लेकर दुर्योधन ने हौले से ये बोला,

अश्वत्थामा मित्र हितैषी तूने ये कैसा कर डाला।

इतने कोमल सर तो पांडव के कैसे हो सकते हैं?

उनके पुत्रों के हीं सर हैं ये हीं ऐसे हो सकते हैं।

ये जानकर अश्वत्थामा उछल पड़ा था भूपर ऐसे ,

जैसे बिजली आन पड़ी हो उसके हीं मस्तक पर जैसे।

पल को तो हताश हुआ था पर संभला था एक पल में ,

जिसकी आस नहीं थी उसको प्राप्त हुआ था फल में।

जिस कृत्य से धर्म राज ने गुरु द्रोण संहार किया ,

सही हुआ सब जिन्दे हैं ना सरल मृत्यु उपहार दिया।

अब जिस पीड़ा को हृदय लिए अश्वत्थामा चलता है ,

ये देख तुष्टि हो जाएगी वो पांडव में भी फलता है ।

पितृ घात के पितृ ऋण से कुछ तो पीड़ा कम होगी ,

धर्म राज से अश्रु नयन से हृदय अग्नि कुछ नम होगी।

अति पीड़ा होती थी उसको पर मन में हर्षाता था,

हार गया था पांडव से पर दुर्योधन मुस्काता था।

हे अश्वत्थामा मेरे उर को भी कुछ ठंडक आती है ,

टूट गया है तन मन मेरा पर दर्पोंनत्त छाती है।

तुमने जो पुरुषार्थ किया निश्चित गर्वित होता हूँ,

पर जिस कारण तू होता न उस कारण होता हूँ।

तू हँसता तेरे कारण से मेरे निज पर कारण हैं ,

जैसे हर नर भिन्न भिन्न जैसे अक्षर उच्चारण है।

कदा कदा हीं पूण्य भाव किंचित जो मन में आते थे,

सोच पितृ संग अन्याय हुए ना सिंचित हीं हो पाते थे।

जब माता के नेत्र दृष्टि गोचित उर में ईर्षा होती,

तन में मन में तपन घोर अंगारों की वर्षा होती।

बचपन से मैंने पांडव को कभी नहीं भ्राता माना,

शकुनि मामा से अक्सर हीं सहता रहता था ताना।

जिसको हठधर्मी कह कहकर आजीवन अपमान दिया,

उर में भर इर्ष्या की ज्वाला और मन में अभिमान दिया।

जो जीवन भर भीष्म ताप से दग्ध आग को सहता था,

पाप पुण्य की बात भला बालक में कैसे फलता था?

ये तथ्य सत्य है दुर्योधन ने अनगिनत अनाचार सहे,

धर्म पूण्य की बात वृथा कैसे उससे धर्माचार फले ?

हाँ पिता रहे आजन्म अंध ना न्याय युक्त फल पाते थे ,

कहने को आतुर सकल रहे पर ना कुछ भी कह पाते थे।

ना कुछ सहना ना कुछ कहना ये कैसी लाचारी थी ,

वो विदुर नीति आड़े आती अक्सर वो विपदा भारी थी।

वो जरासंध जिससे डरकर कान्हा मथुरा रण छोड़ चले,

वो कर्ण सम्मुख था नतमस्तक सोचो कैसा वो वीर अहे।

ऐसे वीर से जीवन भर जाति का ज्ञान बताते थे,

ना कर्म क्षत्रिय का करते नाहक़ अभिमान सजाते थे।

जो जीवन भर हाय हाय जाति से ही पछताता था,

उस कर्ण मित्र के साये में पूण्य कहाँ फल पाता था।

पास एक था कर्ण मित्र भी न्याय नहीं मिल पाता था?

पिता दृश थी विवशता ना सह पाता कह पाता था ।

ऐसों के बीच रहा जो भी उससे क्या धर्म विजय होगा,

जो आग के साए में जीता तो न्याय पूण्य का क्षय होगा।

दुर्बुधि दुर्मुख कहके जिसका सबने उपहास किया ,

अग्न आप्त हो जाए किंचित बस थोड़ा प्रयास किया।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित

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Ajay Amitabh Suman

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